कहानी के माध्यम से स्वाधीनता की खोज
कहानी के क्षेत्र में अज्ञेय का प्रदेय कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। स्वतन्त्रता की तलाश जिस प्रकार उनके उपन्यासों और कविताओं में स्थायी-शक्ति अर्जित करती है, उसी प्रकार निबन्धों, यात्रा-संस्मरणों में भी। नयी कविता और अज्ञेय के कविकर्म के अवदान के आग्रह के कारण हिन्दी आलोचना ने उनकी कहानी-कला पर कम ध्यान दिया है जबकि हिन्दी की नयी कहानी में अज्ञेय एक दुर्निवार और विशिष्ट नाम है। नयी कहानी की रचना-दृष्टि की बीज निर्मितियाँ अज्ञेय की कथादृष्टि के केन्द्र से उपजती रही हैं। अज्ञेय में कहानी की स्थूल-घटनात्मकता टूट जाती है और कटु आन्तरिक मनोभावों, तनावों की मनोभूमिकाओं, द्वन्द्वों व संघर्षों के आधार पर विकसित होने की शक्ति पा जाती है। यहाँ इकहरे-सतही यथार्थ की जगह बहुस्तरीय, बहुवचनात्मक, जटिल-संश्लिष्ट यथार्थ का अन्तःप्रवेश बढ़ जाता है।
अज्ञेय ने कहानी के रचना-गठन में इतना बुनियादी बदलाव ला दिया कि इस विधा की संरचना सदैव के लिए बुनियादी परिवर्तन का वरण करती दिखाई दी है। स्थिति-परिस्थिति के टकराव ने एक नया कहानी-मुहावरा ही ईजाद कर डाला। अज्ञेय कहानी को एक दौड़ती लहर का गतिचित्र मानते हैं। मानसिक सूक्ष्मवृत्तान्त की एकाग्रता और भाव-विचार मीमांसा के आग्रह के कारण कहानी ‘एक क्षण का चित्र’ अपनी बहुस्तरीय यथार्थ-चेतना के साथ सघन संश्लिष्ट रूपाकार में प्रस्तुत करती है। अपने जीवनानुभवों की ताकत से अज्ञेय ने पाया है कि कहानी के लिए कविदृष्टि का संयोग अवश्य चाहिए। कारण यह है कि ‘कविदृष्टि’ से देखा गया यथार्थ अधिक गहरे अर्थ में पैठता है। कहानी में अज्ञेय का कविदृष्टि का आग्रह ही यह व्यंजित करता है कि वे यथार्थ के बहुलार्थक-संकेतों को रचना में स्थान देने के आकांक्षी रहे हैं। उनका नयी राहों का अन्वेषी मन कहानी में नये प्रयोगों से नये युग की मानसिकता को उजागर करने का अरमान लेकर प्रस्तुत होता है। एक खास तकनीक के संयम से वे गद्य की सर्जनात्मकता में रूपात्मकता, प्रतीकात्मकता, व्यंजक-बिम्बधर्मिता को स्थान देते हैं। इस दृष्टि से ‘गैंग्रीन’, ‘मेजर चौधरी की वापसी’, ‘हीलीबोन की बत्तखें’ जैसी कहानियों पर हमारा ध्यान केन्द्रित होता है तो हम पाते हैं कि इनके ‘टेक्स्ट’ या पाठ की व्यंजकता मुग्ध करने वाली है। गहरे-बहुत गहरे में उतरकर हम पाते हैं कि इन कहानियों की अन्तर्वस्तु का अन्तर्भाष्य स्वातन्त्र्य की खोज और लालसा के ही विभिन्न रूप समाहित किये हुए हैं।
अज्ञेय का ध्यान बराबर इस तथ्य की ओर रहा है कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद हिन्दी कहानी के रचनाकारों ने कहानी को लेकर बहुत अधिक वैविध्यपूर्ण ठोस चिन्तन किया है। इस चिन्तन का इतना ज़खीरा हिन्दी कहानी कला के क्षेत्र में लग गया है कि हिन्दी की नयी कहानी की अवधारणा को ठीक ठाक निश्चित करना चुनौती भरा कार्य हो गया है। यह ऐसा रचना-कर्म के संकट का समय रहा है कि कविता-कहानी के क्षेत्र में नये-नये आन्दोलनों के बादल उठे हैं और पूरे आकाश को इन नये आन्दोलनों ने घेर रखा है। नयी कहानी के प्रवक्ताओं-समीक्षकों ने इन विधाओं को लेकर इतने फतवे दिये हैं कि इन विधाओं के प्रतिमानों का प्रश्न निरन्तर उलझता गया है। इस दौर की सबसे बड़ी कमजोरी या शक्ति यही रही कि पुरानी जड़ सैद्धान्तिकताओं से मुक्त होने की पुकार ने ज़ोर पकड़ा है। कहानी में प्रयोग और परिवर्तन का चक्र एक अन्तहीन विमर्श के रूप में प्रकट हुआ है। इस अन्तहीन विचार-विमर्श से यह भ्रम उपजा है कि कहानी ही आज की केन्द्रीय विधा है।
आज के युग में कथाकार का रचना-कर्म क्या महत्त्व रखता है? यह जटिल प्रश्न अज्ञेय को निरन्तर मथता रहा है। उन्हें लगता रहा है कि शायद ही किसी समय समाज में रचना-कर्म इतना संशयग्रस्त और सन्दिग्ध रहा हो। यहाँ तक आत्मत्रस्त स्थिति पैदा हो गयी कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, मीडिया, और बृद्ध पूँजीवाद मिलकर साहित्य की विधाओं का गला घोट रहे हैं। रचना-कर्म किनारे पर आ गया है। उसकी केन्द्रीयता ही समाज से विलुप्त होती जा रही है। इसलिए आज हमारी सीधी लड़ाई मीडिया-तन्त्र के अधिनायकों से है जो पूरी पीढ़ी की कल्पना-शक्ति को बंजर करने पर तुल गये हैं। यह तन्त्र मिलकर रचनात्मक शब्द की गरिमा को धूल में ध्वस्त कर रहा है। कहानी या कविता हमारी तात्कालिक इच्छाओं, आकांक्षाओं की पूर्ति का साधन नहीं हैं। इसलिए कलाकृति ऐसा दावा करती भी नहीं है। रचनाकार का माध्यम है शब्द और शब्द में सीधे साक्षात्कार कहानी या कविता के भीतर प्रवेश करने पर ही किया जा सकता है। अगर आप उपयोगिता और बाजार के हिसाब से प्रेमचन्द ओर अज्ञेय की कहानियों को आँकते हैं तो पाते हैं कि एक मोची, एक बढ़ई का कर्म इन दोनों से ज्यादा उपयोगी है। कहते हैं, महान कथाकार अज्ञेय जीवन के अन्तिम वर्षों में कला की सार्थकता को लेकर संशयग्रस्त हो गये थे। कलाकृति का सत्य यदि शब्दों के भीतर ही निहित है तो वह रचनात्मक शब्द-व्यापार भूखे को रोटी नहीं दे सकता। यह होने पर भी कलाकृति का सत्य मानव अनुभव की व्याख्या में कुछ जोड़ता है। फिर कहानी एक ऐसी विधा है जो अपनी हदों का अतिक्रमण करती हुई अन्य विधा में प्रवेश करती रही है। यह कहानी ही है जिसके ‘प्रवेश’ के कारण अन्य विधाओं की सीमा रेखाएँ धुँधली हुई हैं, विघटित हुई हैं, लेकिन अन्तर अभी भी समाप्त नहीं हुआ है। हाँ, कहानी ने सभी विधाओं के ढाँचे ढीले कर दिये हैं और उनमें उन्मुक्तता आ गयी है। ‘गद्य की देह’ में कहानी अपना कथा-रूपक रचती है-शब्द और अर्थ में तनावभरी दीप्ति पैदा करती है परन्तु कहानी के शब्द कभी भी कविता के शब्दों की तरह स्वायत्त नहीं होते। अज्ञेय की कहानियों का भीतरी कथ्य, अनुभव फार्म इस तथ्य में निहित नहीं है कि वे क्या व्यंजित करती हैं बल्कि इसमें है कि कहानियों के स्मृति दीप हमें कितना अलोकित कर पाते हैं। इस दृष्टि से अज्ञेय की कहानियाँ गद्य की देह में केवल अनुभव संवेदना का विस्तार रचती हैं। सच बात तो यह है कि अज्ञेय की कहानियाँ स्मृति की तन्मयता को एकाग्र होकर जीती हैं। गद्य के कथात्मक प्रवाह में ‘गैंग्रीन’ एक काव्यात्मक बिम्ब रचती है, जिसमें कविता से अलग एक भावनात्मक संसार का आलोक निवास करता है।
यहाँ अज्ञेय के कहानी कर्म की अन्तर्यात्रा करने के लिए जरूरी है कि हम उनके अब तक प्रकाशित कहानी-संग्रहों पर ध्यान दें। क्योंकि इन संग्रहों की कहानियों में ‘विद्रोही अज्ञेय’ की मनोभूमिका का इतिहास अपने पूरे पाठ-सन्दर्भों के साथ उपस्थित है। साथ ही वे प्रेरणाएँ, निहितार्थों की व्यंजनाएँ हैं, जिनसे अज्ञेय के समय की रचना-स्थितियाँ, वैचारिक निर्मितियों को गढ़ा जा सकता है। अब तब अज्ञेय के निम्नलिखित कहानी-संग्रह प्रकाशित हुए हैं-
‘विपथगा’ 1937, ‘परम्परा’ 1944, ‘कोठरी की बात’ 1945, ‘शरणार्थी’ 1948, ‘जयदोल’ 1951, ‘अमरवल्लरी और अन्य कहानियाँ’ 1954, ‘कड़ियाँ और अन्य कहानियाँ’ 1954, तथा ‘ये तेरे प्रतिरूप’ 1961। इनमें से ‘अमरवल्लरी’ की सभी कहानियाँ, ‘कड़ियाँ’ की एक के अलावा सभी कहानियाँ तथा ‘ये तेरे प्रतिरूप’ की आधी कहानियाँ पिछले खंडों में संकलित हैं। अब तक की अज्ञेय की सभी कहानियाँ दो खंडों में प्रकाशित हो चुकी हैं-‘अज्ञेय की सम्पूर्ण कहानियाँ’ खंड-1 (छोड़ा हुआ रास्ता-1975) तथा ‘अज्ञेय की सम्पूर्ण कहानियाँ’ खंड-2 (लौटती पगडंडियाँ-1975)।
यहाँ पाठक के मन में यह जिज्ञासा सहज ही पैदा होती है कि अज्ञेय की पहली कहानी कौन-सी है? अज्ञेय की पहली कहानी-1929 में ‘जिज्ञासा’ शीर्षक से लिखी गयी है तथा जिसका प्रकाशन 1935 में हुआ। इसी तरह अज्ञेय की अब तक लिखी गयी कहानियों में अन्तिम कहानी है ‘हजामत का साबुन’, जिसका रचनाकाल 1959 है। इस तरह तीस वर्षों (1929-1959) में अज्ञेय ने सड़सठ कहानियों का सृजन किया है। ‘कहानी लेखन में अज्ञेय का मन कम सक्रिय रहा है। इसका प्रमाण है कि 1929 में एक, 1931 में सात, 1932 में पाँच, 1933 में छह, 1934 में छह, 1935 में चार, 1936 में चार, 1937 में सात, 1938 में दो, 1939 में दो, 1940 में एक, 1941 में एक, 1947 में सात, 1949 में दो, 1950 में पाँच, 1951 में एक, 1952 में एक, 1954 तीन, 1957 में एक और 1959 में एक कहानी की रचना। डॉ. देवराज ने ‘आधुनिक हिन्दी कथा-साहित्य और मनोविज्ञान’ में अज्ञेय की कहानियों की तीन श्रेणियाँ मानी हैं-(1) क्रान्तिकारी जीवन से सम्बन्धित, (2) प्रेम से सम्बन्धित और (3) मनोवैज्ञानिक।
अज्ञेय पर माँ सरस्वती ने बहुत शीघ्र कृपा की है। जब वे अठारह वर्ष के थे तो उन्होंने पहली कहानी ‘जिज्ञासा’ 1929 में लिखी। दूसरी कहानी 1931 में ‘विपथगा।’ और तेईस वर्ष की उम्र में ‘गैंग्रीन’। इस तरह पच्चीस वर्ष की उम्र तक सत्ताईस कहानियाँ लिखीं। अन्तिम दो कहानियाँ 1957 और 1959 में लिखीं और इस विधा से हट गये। जाहिर है अज्ञेय ने जब कहानी लिखना शुरू किया, उस समय इस विधा के सबसे समर्थ कहानीकार प्रेमचन्द सक्रिय थे। लेकिन अज्ञेय ने प्रेमचन्द की छाप तक नहीं छूने दी अपनी कहानियों में। और एक अलग मुहावरा आविष्कृत किया। अज्ञेय ने जयशंकर प्रसाद के काव्यत्व, प्रतीक आदि के आग्रह को भी सीधे न अपनाकर अपनी शर्तों पर ग्रहण किया। अज्ञेय ने घटना से ज्यादा परिवेश और पात्र की मनोभूमिका में मनोविश्लेषण का प्रयोग किया। वे व्यक्ति के मनोलोक में गहरे बहुत गहरे उतरकर रचना में प्रवृत्त होते दिखाई दिये। इस तरह वे प्रसाद से ‘प्रभाव’ लेकर भी प्रसाद से अलग होते गये। इतना ही नहीं, अज्ञेय ने इस क्षेत्र में जैनेन्द्र से भी अपने को अलग रखा। जैनेन्द्र ने अपनी पुस्तक ‘कहानीः अनुभव और शिल्प’ में माना है कि वे शिल्प के प्रति जागरूकता नहीं चाहते। कहानी सहज वृत्ति या ‘इंस्टिक्ट’ की कन्या है। इसके ठीक विपरीत अज्ञेय शिल्प के प्रति बहुत सजग रचनाकार हैं और सावधान प्रयोगी। प्रयोगी भी ऐसे जो नयी राहों को खोजने के लिए बेचैन रहता है। उन्होंने कहा है-‘थोड़ी और स्पष्ट बात यह होगी कि मेरी जिज्ञासा और दिलचस्पी आदर्शपरक रचना से बढ़ती हुई क्रमशः यथार्थोन्मुख होती गयी। और भी स्पष्ट यह कि जिस यथार्थ की ओर मैं अधिकाधिक बढ़ा, वह ‘बाह्य’ या ‘भौतिक’ या सामाजिक’ यथार्थ से पहले आभ्यन्तर, मानस अथवा मनोवैज्ञानिक यथार्थ था।’ फिर अज्ञेय यह कहने से भी अपने को नहीं रोक सके कि ‘पर मनोवैज्ञानिक यथार्थ का कहानी से कोई असामंजस्य तो नहीं है। और इस बात के प्रमाण के लिए मेरी ही कहानियों के उदाहरण लिये जा सकते हैं।’ अज्ञेय जैसा शालीन संकोची रचनाकार इस तरह की बात करता कहाँ है? वह अपने विषय में मौन रहता है। लेकिन यहाँ वे मुखर होकर बोले हैं।
दरअसल, प्रेमचन्द, प्रसाद और जैनेन्द्र से अज्ञेय निकट रहकर भी सृजन कर्म के मुहावरे में दूर रहे। अज्ञेय ने हिन्दी के किसी कहानीकार को अपना ‘रोल मॉडल’ कभी नहीं बनाया। विदेशी रचनाकारों में चेखव, मोपासाँ, ओ. हेनरी, टॉलस्टॉय जैसे तमाम रचनाकारों को पढ़ते गुनते हुए भी वे उनसे न चिपके और न ही अनुकरण किया। उनका आदर्श ‘उड़ चल हरिल’ लिये हाथ में एक अकेला ओछा तिनका’ ही रहा। इसी हारिल ने कहानी के आकाश में अनथक पंखों की चेाटों से अपनी राह स्वयं बनायी। वे स्वयं अपना दीपक बने तथा हिन्दी कहानीकारों के ‘काव्यतत्त्व-विरोधी’ रुझान को हर कीमत पर अस्वीकार किया। वे मानते रहे कि ‘कहानीकार के अन्य गुणों से सम्पन्न व्यक्ति में कविदृष्टि भी होने पर वह अधिक महत्त्वपूर्ण कहानी लेखक हो सकता है।’ वे इसी दृष्टि से रवीन्द्रनाथ टैगोर का बड़ा श्रद्धा से स्मरण करते हैं। लेकिन अज्ञेय पर रवीन्द्रनाथ की छाप-छाया खोजने पर आप पाएँगे कि वे रवीन्द्रनाथ से भी दूर रहे और भिन्न दिशा में चले बढ़े। अज्ञेय का क्रान्तिकारी मानस आरम्भ की कहानियों की प्रेरणा बना और क्रान्तिकारी जीवन का आत्मकथ्य उनमें जब्त होता गया। अज्ञेय का क्रान्तिकारी और विद्रोही रचना-मानस उन्हें किसी का भी पिछलग्गू नहीं बनने देता। अज्ञेय के इस रचना-स्वभाव को समझने में हिन्दी आलोचना अपनी तेली की बैलवादी प्रतिबद्धताओं के कारण अक्षम-असमर्थ रही है।
यहाँ अज्ञेय की कहानी से सम्बन्धित सिद्धान्त दृष्टि पर विचार करने का न समय है न औचित्य। लेकिन इतना कहना जरूरी है कि अज्ञेय के लिए नये का अर्थ है - पुरानी पद्धति, पुराने रूप, पुरानी प्रक्रिया, पुरानी कथन-भंगिमाएँ और पुराने ढाँचे में आमूलचूल परिवर्तन। जैसे शब्बग्रिये, मिशेल बूत जैसे रचनाकारों ने प्रारूप और शैली, चरित्र एवं कथानक को छोड़कर देश और काल का अतिक्रमण करते हुए एक नयी अर्थभूमि का प्रारूप तलाश किया, वैसा ही काम अज्ञेय ने कहानी, कविता, उपन्यास आदि के क्षेत्रों में किया। उन्होंने कहानी के ढाँचे को बदल डाला। इसलिए भी अज्ञेय की कहानियों का संसार हमें डिस्टर्ब करता है। भीतर-से उधेड़ता-बुनता है और विश्वासों को झिंझोड़ता है। अज्ञेय की कहानियों का जादू रेणु और निर्मल वर्मा की तरह उसकी नितान्त, निजी, विशिष्ट बुनावट, और बनावट में है। इसलिए आज भी हम नयी-कहानी के शक्तिशाली तत्त्व जैनेन्द्र, अज्ञेय और यशपाल में पाते हैं।
अज्ञेय ने 1952 में एक अली की कहानी लिखी - ‘खितीन बाबू’। एक साधारण क्लर्क हैं खितीन बाबू। एक आँख नहीं, ऑपरेशन में अपेंडिक्स काटा गया। फिर टांसिल का आपरेशन। दुर्घटना में एक बाँह कटी फिर दूसरी भी काटी गयी। पैर भी कटे। बाँह के अवशेष कन्धे भी निकाल दिए गये। पर वे इस बार शरीर में विष फैल जाने के कारण बचे नहीं। जब तक जीये जीवन में रस लेकर जिये, अदम्य जिजीविषा के साथ। अज्ञेय ने इस रेखाचित्र पर कहानी के अन्त में लिखा - ‘केवल दीप्ति, केवल संकल्प शक्ति, रोटी, कपड़ा, आसरा, हम चिल्लाते है ये सभी जरूरी हैं, निसन्देह जीवन के एक स्तर पर सब निहायत जरूरी हैं लेकिन मानव जीवन की मौलिक प्रतिज्ञा यह नहीं है। यह है केवल मानव का अदम्य, अटूट संकल्प।’ इस कथन से व्यंजित है कि अज्ञेय सामाजिक यथार्थ की यथार्थता को लेकर कहानी नहीं बनाते। वे व्यक्ति के अन्तर्मन के मनःस्थिति को कहानी में रूप देते हैं। जीवन में रोटी-कपड़ा जरूरी है, लेकिन उससे ज्यादा जरूरी है मानव का दृढ़ संकल्प, उसकी दुर्दमनीय जिजीविषा।’ इस जिजीविषा का पाठ या टेक्स्ट है ‘खितीन बाबू’। लेकिन उन आलोचकों को क्या कहें जो कहानी, नयी कहानी की आड़ में अज्ञेय की अक्षमता को कोसते रहे। कभी ‘पठार का धीरज’ के नाम पर तो कभी ‘साँप’ कहानी के नाम पर। लेकिन ऐसे भी कुछ पारखी आलोचक हैं जो अज्ञेय की कहानी ‘पठार का धीरज’ को पहली नयी प्रेम-कहानी कहते हैं।
क्या यह सच नहीं है कि अज्ञेय हिन्दी-कहानी के ‘अपूर्व’ हैं। उनकी कहानियों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में आकलन, विश्लेषण एवं मूल्यांकन न करना अक्षम्य साहित्यिक अपराध है। ‘विचारधाराओं के अन्त’ के इस उत्तर-आधुनिक समय में अज्ञेय को नये सिरे से समझने की कोशिश करनी चाहिए। गैंग्रीन, अमरवल्लरी, शरणदाता, जयदोल हीली बोन की बत्तखें तथा ‘खितीन बाबू’ जैसी तमाम कहानियों में अपने समय-समाज संस्कृति-राजनीति का बड़ा खज़ाना मौजूद है। इन कहानियों का पाठ पुनःपाठ किया जाना चाहिए। केवल कुपाठ से तो रचना का अर्थ और सन्दर्भ मरता है। हमें इस विश्वास के साथ इन कहानियों को ‘डि-कंस्टक्ट।’ करना होगा एक नये ‘डिस्कोर्स’ के साथ। ताकि अज्ञेय के इस कथन का सच सामने आ सके कि ‘कहानी के बीते कल की ये कहानियाँ कहानी के आगे कल भी पढ़ जा सकेंगी, पढ़ी जाएँगी और पाठक को कभी दोबारा भी आमन्त्रित कर सकेंगी।’
अज्ञेय को लेकर जैनेन्द्र ने कभी बड़े साहस से कहा था कि अज्ञेय गहरे जाते हैं और सूक्ष्मता को हस्तगत करना चाहते हैं, लेकिन कला मानो उनके निकट साध्य हो जाती है और कथ्य, कथन की मीनाकारी में कोरा और झीना पड़ने लगता है। कला की बारीकी से अज्ञेय ने काम लिया लेकिन वे भाषागत शिल्प की सर्जनात्मकता की ओर बढ़ने में रुके नहीं। शिल्पगत कोणों को विस्तृत करने में अज्ञेय ने बड़ा भारी संघर्ष किया। प्रसाद जी की कल्पना परिधि से निकालकर वे कहानी वहाँ ले गये, जहाँ राजनीतिक क्रान्तियाँ थीं, जेल थी, सैनिक जीवन था, देश-विभाजन की पीड़ादायक समस्या थी, व्यक्ति की अनेक जटिल मनोवैज्ञानिक समस्याओं का भीतरी यथार्थ था। उनकी कहानियों में ऐसा बहुत था और है जिसकी उनके समकालीन रचनाकारों ने कभी कल्पना तक न की थी। व्यक्ति की अन्तर्यात्रा में अज्ञेय ने नये से नये कहानी में व्यक्ति प्रयोग किये। इन प्रयोगों का आज भी महत्त्व कम नहीं हुआ है। यह नहीं भूलना चाहिए कि अज्ञेय की कहानियों के साथ आरोपित गैर साहित्यिक प्रतिमानों से न्याय नहीं किया जा सकता है।
-कृष्णदत्त पालीवाल